फसल – केदारनाथ सिंह

केदारनाथ सिंह, हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि व साहित्यकार थे. यहाँ पढ़िए उनकी ही एक बेहद खूबसूरत हिंदी कविता जिसका शीर्षक है – फसल

Kedarnath Singh

फसल – केदारनाथ सिंह

मैं उसे बरसों से जानता था–
एक अधेड़ किसान
थोड़ा थका
थोड़ा झुका हुआ
किसी बोझ से नहीं
सिर्फ़ धरती के उस सहज गुरुत्वाकर्षं से
जिसे वह इतना प्यार करता था
वह मानता था–
दुनिया में कुत्ते बिल्लियाँ सूअर
सबकी जगह है
इसलिए नफ़रत नहीं करता था वह
कीचड़ काई या मल से

भेड़ें उसे अच्छी लगती थीं
ऊन ज़रूरी है–वह मानता था
पर कहता था–उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है
उनके थनों की गरमाहट
जिससे खेतों में ढेले
ज़िन्दा हो जाते हैं

उसकी एक छोटी-सी दुनिया थी
छोटे-छोटे सपनों
और ठीकरों से भरी हुई
उस दुनिया में पुरखे भी रहते थे
और वे भी जो अभी पैदा नहीं हुए
महुआ उसका मित्र था
आम उसका देवता
बाँस-बबूल थे स्वजन-परिजन
और हाँ, एक छोटी-सी सूखी
नदी भी थी उस दुनिया में-
जिसे देखकर– कभी-कभी उसका मन होता था
उसे उठाकर रख ले कंधे पर
और ले जाए गंगा तक–
ताकि दोनों को फिर से जोड़ दे
पर गंगा के बारे में सोचकर
हो जाता था निहत्था!

इधर पिछले कुछ सालों से
जब गोल-गोल आलू
मिट्टी फ़ोड़कर झाँकने लगते थे जड़ों से
या फसल पककर
हो जाती थी तैयार
तो न जाने क्यों वह– हो जाता था चुप
कई-कई दिनों तक
बस यहीं पहुँचकर अटक जाती थी उसकी गाड़ी
सूर्योदय और सूर्यास्त के
विशाल पहियोंवाली

पर कहते हैं–
उस दिन इतवार था
और उस दिन वह ख़ुश था
एक पड़ोसी के पास गया
और पूछ आया आलू का भाव-ताव
पत्नी से हँसते हुए पूछा–
पूजा में कैसा रहेगा सेंहुड़ का फूल?
गली में भूँकते हुए कुत्ते से कहा–
‘ख़ुश रह चितकबरा,
ख़ुश रह!’
और निकल गया बाहर

किधर?
क्यों?
कहाँ जा रहा था वह–
अब मीडिया में इसी पर बहस है

उधर हुआ क्या
कि ज्यों ही वह पहुँचा मरखहिया मोड़
कहीं पीछे से एक भोंपू की आवाज़ आई
और कहते हैं– क्योंकि देखा किसी ने नहीं–
उसे कुचलती चली गई

अब यह हत्या थी
या आत्महत्या–इसे आप पर छोड़ता हूँ
वह तो अब सड़क के किनारे
चकवड़ घास की पत्तियों के बीच पड़ा था
और उसके होंठों में दबी थी
एक हल्की-सी मुस्कान!

उस दिन वह ख़ुश था।