ओ मेरे दिल! – अज्ञेय

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हिंदी भाषा के कवि, लेखक, पत्रकार थे. वे नई नयी कविता आंदोलन और प्रयोगवाद के लिए जाने जाते थे. प्रस्तुत है उनकी एक कविता “ओ मेरे दिल!”

Agyeya

ओ मेरे दिल! – 1

धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!
तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल!
जब ईसा को दे कर सूली जनता न समाती थी फूली,
हँसती थी अपने भाई की तिकटी पर देख देह झूली,

ताने दे-दे कर कहते थे सैनिक उस को बेबस पा कर :
“ले अब पुकार उस ईश्वर को-बेटे को मुक्त करे आ कर!”
जब तख्ते पर कर-बद्ध टँगे, नरवर के कपड़े खून-रँगे,
पाँसे के दाँव लगा कर वे सब आपस में थे बाँट रहे,

तब जिस ने करुणा से भर कर उस जगत्पिता से आग्रह कर
माँगा था, “मुझे यही वर दे: इन के अपराध क्षमा कर दे!”
वह अन्त समय विश्वास-भरी जग से घिर कर संन्यास-भरी
अपनी पीड़ा की तड़पन में भी पर-पीड़ा से त्रास-भरी

ईसा की सब सहने वाली चिर-जागरुक रहने वाली
यातना तुझे आदर्श बने कटु सुन मीठा कहने वाली!
तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल-
धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!

ओ मेरे दिल! – 2

धक्-धक् धक्-धक् ओ मेरे दिल!
तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल!
बोधी तरु की छाया नीचे जिज्ञासु बने-आँखें मीचे-
थे नेत्र खुल गये गौतम के जब प्रज्ञा के तारे चमके;

सिद्धार्थ हुआ, जब बुद्ध बना, जगती ने यह सन्देश सुना-
“तू संघबद्ध हो जा मानव! अब शरण धर्म की आ, मानव!”
जिस आत्मदान से तड़प रही गोपा ने थी वह बात कही-
जिस साहस से निज द्वार खड़े उस ने प्रियतम की भीख सही-

“तू अन्धकार में मेरा था, आलोक देख कर चला गया;
वह साधन तेरे गौरव का गौरव द्वारा ही छला गया-
पर मैं अबला हूँ, इसीलिए कहती हूँ, प्रणत प्रणाम किये,
मैं तो उस मोह-निशा में भी ओ मेरे राजा! तेरी थी;

अब तुझ से पा कर ज्ञान नया यह एकनिष्ठ मन जान गया
मैं महाश्रमण की चेरी हूँ-ओ मेरे भिक्षुक! तेरी हूँ!”
वह मर्माहत, वह चिर-कातर, पर आत्मदान को चिर-तत्पर,
युग-युग से सदा पुकार रहा औदार्य-भरा नारी का उर!

तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल-
धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!

ओ मेरे दिल!  – 3

धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!
तुझ में सामर्थ्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल!
बीते युग में जब किसी दिवस प्रेयसि के आग्रह से बेबस,
उस आदिम आदम ने पागल, चख लिया ज्ञान का वर्जित फल,

अपमानित विधि हुंकार उठी, हो वज्रहस्त फुफकार उठी,
अनिवार्य शाप के अंकुश से धरती में एक पुकार उठी :
“तू मुक्त न होगा जीने से, भव का कड़वा रस पीने से-
तू अपना नरक बनावेगा अपने ही खून-पसीने से!”

तब तुझ में जो दु:सह स्पन्दन कर उठा एक व्याकुल क्रन्दन :
“हम नन्दन से निर्वासित हैं, ईश्वर-आश्रय से वंचित हैं;
पर मैं तो हूँ पर तुम तो हो-हम साथी हैं, फिर हो सो हो!
गौरव विधि का होगा क्योंकर मेरी-तेरी पूजा खो कर?”

उस स्पन्दन ही से मान-भरे, ओ उर मेरे अरमान-भरे,
ओ मानस मेरे मतवाले-ओ पौरुष के अभिमान-भरे!
तुझ में सामर्थ्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल,
धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!