सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हिंदी भाषा के कवि, लेखक, पत्रकार थे. वे नयी कविता आंदोलन और प्रयोगवाद के लिए जाने जाते थे. प्रस्तुत है उनकी एक कविता “नाता-रिश्ता – अज्ञेय”
नाता-रिश्ता – 1
तुम सतत
चिरन्तन छिने जाते हुए
क्षण का सुख हो–
(इसी में उस सुख की अलौकिकता है) :
भाषा की पकड़ में से फिसली जाती हुई
भावना का अर्थ–
(वही तो अर्थ सनातन है) :
वह सोने की कनी जो उस अंजलि भर रेत में थी जो
–धो कर अलग करने में–
मुट्ठियों में फिसल कर नदी में बह गई–
(उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर
अंजलि भरेगी
और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।)
तुम सदा से
वह गान हो जिस की टेक-भर
गाने से रह गई।
मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो
हवा के झोंकों के लिए रह गया
पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं…
यही सब हमारा नाता-रिश्ता है– इसी में मैं हूँ
और तुम हो :
और इतनी ही बात है जो बार-बार कही गई
और हर बार कही जाने में ही कही जाने से रह गई।
नाता-रिश्ता – 2
तो यों, इस लिए
यहीं अकेले में
बिना शब्दों के
मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूँजने दो
मौन में लय हो जाने दो :
यहीं जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं
केवल मरु का रेत-लदा झोंका
डँसता है और फिर एक किरकिरी
हँसी हँसता बढ़ जाता है-
यहीं जहाँ रवि तपता है
और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की
यवनिका में झपता है-
यहाँ जहाँ सब कुछ दीखता है
पर सब रंग सोख लिये गये हैं
इस लिए हर कोई सीखता है कि
सब कुछ अन्धा है।
जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूँज
नाता-रिश्ता – 3
यहीं, यहीं और अभी
इस सधे सन्धि-क्षण में
इस नए जन्मे, नए जागे,
अपूर्व, अद्वितीय…अभागे
मेरे पुण्यगीत को
अपने अन्त:शून्य में ही तन्मय हो जाने दो–
यों अपने को पाने दो !
नाता-रिश्ता – 4
वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो
और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है?
हाँ– बातों के बीच की चुप्पियों में
हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में
तीर्थों की पगडंडियों में
बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की
दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में !
नाता-रिश्ता – 5
उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ
उस मौन की भाषा में मैं गाता हूँ :
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में
मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर
मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ–
यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ।