चमारों का नाच – सुमित्रानंदन पंत

सुमित्रानंदन पंत हिंदी में छायावाद युग के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं. प्रस्तुत है यहाँ उनकी एक कविता – चमारों का नाच

Sumitranandan Pant

अररर…….
मचा खूब हुल्लड़ हुड़दंग,
धमक धमाधम रहा मृदंग,
उछल कूद, बकवाद, झड़प में
खेल रही खुल हृदय उमंग
यह चमार चौदस का ढंग।

ठनक कसावर रहा ठनाठन,
थिरक चमारिन रही छनाछन,
झूम झूम बाँसुरी करिंगा
बजा रहा बेसुध सब हरिजन,
गीत नृत्य के सँग है प्रहसन!

मजलिस का मसख़रा करिंगा
बना हुआ है रंग बिरंगा,
भरे चिरकुटों से वह सारी
देह हँसाता खूब लफंगा,
स्वाँग युद्ध का रच बेढंगा!

बँधा चाम का तवा पीठ पर,
पहुँचे पर बद्धी का हंटर,
लिये हाथ में ढ़ाल, टेड़ही
दुमुहा सी बलखाई सुन्दर—
इतराता वह बन मुरलीधर!

ज़मीदार पर फबती कसता,
बाम्हन ठाकुर पर है हँसता,
बालों में वक्रोक्ति काकु औ’
श्लेश बोल जाता वह सस्ता,
कल काँटा को कह कलकत्ता।

घमासान हो रहा है समर,
उसे बुलाने आये अफ़सर,
गोला फट कर आँख उड़ा दे,
छिपा हुआ वह, उसे यही डर,
खौफ़ न मरने का रत्ती भर।

काका, उसका है साथी नट,
गदके उस पर जमा पटापट,
उसे टोकता,—गोली खाकर
आँख जायगी, क्यों बे नटखट?
भुन न जायगा भुनगे सा झट?’

गोली खाई ही हैं!’ ’चल हट!’
’कई—भाँग की!’ वाः, मेरे भट!’
’सच काका!’ भगवान राम
सीसे की गोली!’ ’रामधे?’ ’विकट!’
गदका उस पर पड़ता चटपट।

वह भी फ़ौरन बद्धी कसकर
काका को देता प्रत्युतर,
खेत रह गए जब सब रण में
तब वह निधड़क, गुस्से में भर,
लड़ने को निकला था बाहर!

लट्टू उसके गुन पर हरिजन,
छेड़ रहा वंशी फिर मोहन,
तिरछी चितवन से जन मन हर
इठला रही चमारिन छन छन,
ठनक कसावर बजता ठन ठन!

ये समाज के नीच अधम जन,
नाच कूद कर बहलाते मन,
वर्णों के पद दलित चरण ये
मिटा रहे निज कसक औ’ कुढ़न
कर उच्छृंखलता, उद्धतपन।

अररर……….
शोर, हँसी, हुल्लड़, हुड़दंग,
धमक रहा धाग्ड़ांग मृदंग,
मार पीट बकवास झड़प में
रंग दिखाती महुआ, भंग
यह चमार चौदस का ढंग!