चढ़ने लगती है – अज्ञेय

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हिंदी भाषा के कवि, लेखक, पत्रकार थे. वे नयी कविता आंदोलन और प्रयोगवाद के लिए जाने जाते थे. प्रस्तुत है उनकी एक कविता “चढ़ने लगती है”

Agyeya

चढ़ने लगती है 

ओ साँस! समय जो कुछ लावे
सब सह जाता है:
दिन, पल, छिन-इनकी झाँझर में जीवन
कहा-अनकहा रह जाता है।
बहू हो गयी ओझल:

नदी पार के दोपहरी सन्नाटे ने फिर
बढ़ कर इस कछार की कौली भर ली:
वेणी आँचल से रेती पर
झरती बूँदों की लहर-डोर थामे, ओ मन!
तू बढ़ता कहाँ जाएगा?