यूं लब से अपने निकले हैं अब बार-बार आह।
करता है जिस तरह कि दिले बेक़रार आह।
आलम ने क्या ही ऐश की लूटी बहार आह।
हमसे तो आज भी न मिला वह निगार आह।
हम ईद के, भी दिन रहे उम्मीदवार, आह!
हो जी में अपने ईद की फ़रहत से शाद काम।
खूबां से अपने-अपने लिए सबसे दिल के काम।
दिल खोल-खोल सब मिले आपस में ख़ासोआम।
आग़ोशे ख़ल्क़ गुल बदनों से भरे तमाम।
खाली रहा पर एक हमारा किनारआह
क्या पूछते हो शोख से मिलने की अब खबर।
कितना ही जुस्तुजू में फिरे हम इधर-उधर।
लेकिन मिला न हमसे वह अय्यार फ़ितना गर।
मिलना तो एक तरफ़ है, अज़ीज़ो! कि भर नज़र।
पोशाक की भी हमने न देखी बहार, आह!
रखते थे हम उम्मीद यह दिल में कि ईद को।
क्या-क्या गले लगायेंगे दिलबर को शाद हो।
सो तो वह आज भी न मिला शोख़ हीलागो।
थी आस ईद की सो गई वह भी दोस्तो।
अब देखें क्या करे दिले उम्मीदवार, आह!
उस संगदिल की हमने ग़रज़ जबसे चाह की।
देखा न अपने दिल को कभी एकदम खु़शी।
कुछ अब ही उसकी ज़ोरो तअद्दी नहीं नयी।
हर ईद में हमें तो सदा यास ही रही।
काफ़िर कभी न हमसे हुआ हम किनार, आह!
इक़रार हमसे था कई दिन आगे ईद से।
यानी कि ईदगाह को जायेंगे तुमको ले।
आखि़र को हमको छोड़ गए साथ और के।
हम हाथ मलते रह गए और राह देखते।
क्या-क्या गरज़ सहा, सितमे इन्तज़ार आह!
क्योंकर लगें न दिल में मेरे हस्रतों के तीर।
दिन ईद के भी मुझसे हुआ वह किनारा गीर।
इस दर्द को वह समझे जो हो इश्क़ का असीर।
जिस ईद में कि यार से मिलना न हो ‘नज़ीर’।
उसके ऊपर तो हैफ़ है और सद हज़ार आह!
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