—
लबों पर उसके कभी
बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी
खफ़ा नहीं होती।
—
इस तरह मेरे गुनाहों
को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में
होती है तो रो देती है।
—
मैंने रोते हुए पोछे
थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने
नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।
—
अभी ज़िंदा है माँ
मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता
हूँ दुआ भी साथ चलती है।
—
जब भी कश्ती मेरी
सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई
ख्वाब में आ जाती है।
—
ऐ अंधेरे देख ले
मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी
घर में उजाला हो गया।
—
मेरी ख़्वाहिश है कि
मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट
जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।
—
मुनव्वर माँ के आगे
यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो
इतनी नमी अच्छी नहीं होती
यहाँ तीरगी के साथ
हुआ रोशनी के साथ
—
कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं
जाए तो अब मिलने का गम होगा
—
रोशनी लुटाएगा
अपना मकाँ नहीं होता
—
सकता बता न देना उसे
सुनेगा
तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा
—
कब के बुझ गये होते
कोई
तो है जो हवाओं के पर कतरता है
—
है अभी मेरा सफ़र
रास्ता
रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा
अकबर इलाहाबादी
जो हस्रते दिल है, वह निकलने की नहीं
जो बात है काम की, वह चलने की नहीं
—
यह भी है बहुत कि दिल सँभाले रहिए
क़ौमी हालत यहाँ सँभलने की नहीं
—
ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा
मुझको अब करना ही क्या है साँस लेने के सिवा
—
थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा
—
मायूस कर रहा है नई रोशनी का रंग
इसका न कुछ अदब है न एतबार है
—
तक़दीस मास्टर की न लीडर का फ़ातेहा
यानी न नूरे-दिल है, न शमये मज़ार है
—
जिस बात को मुफ़ीद समझते हो ख़ुद करो
औरों पे उसका बार न इस्रार से धरो
हालात मुख़्तलिफ़ हैं, ज़रा सोच लो यह बात
दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो
फ़ानी बदायूनी
देख ‘फ़ानी’ वोह तेरी तदबीर की मैयत न हो।
इक जनाज़ा जा रहा है दोश पर तक़दीर के।।
—
या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं ‘फ़ानी’।
लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर को क्या कहिए।।
—
हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
आलम दलीले गुमरहीए-चश्मोगोश था।।
—
तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।
—
एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।
राज़ है बेनियाज़े-महरमे-राज़।।
—
हूँ, मगर क्या यह कुछ नहीं मालूम।
मेरी हस्ती है ग़ैब की आवाज़।।
यह जानता तो आग लगाता न घर को मैं।।
—
वोह पाये-शौक़ दे कि जहत आश्ना न हो।
पूछूँ न ख़िज़्र से भी कि जाऊँ किधर को मैं।।
—
याँ मेरे क़दम से है वीराने की आबादी।
वाँ घर में ख़ुदा रक्खे आबाद है वीरानी।।
जब हमने कोई शाख़ चुनी शाख़ जल गई।।
—
अपनी तो सारी उम्र ही ‘फ़ानी’ गुज़ार दी।
इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।
कल नाम लेके तेरा दीवानावार रोया।।
—
नाला क्या? हाँ इक धुआँ-सा शामे-हिज्र।
बिस्तरे-बीमार से उट्ठा किया।।
—
क्या चारागर ने समझा, क्यों बार-बार रोया।।
—
ग़म के टहोके कुछ हों बला से, आके जगा तो जाते हैं।
हम हैं मगर वो नींद के माते जागते ही सो जाते हैं।।
—
महबे-तमाशा हूँ मैं या रब! या मदहोशे-तमाशा हूँ।
उसने कब का फेर लिया मुँह अब किसका मुँह तकता हूँ।।
चौंक उठे थे हम घबराकर फिर भी आँख न खुलती थी।।
—
फ़स्ले-गुल आई,या अजल आई, क्यों दरे ज़िन्दाँ खुलता है?
क्या कोई वहशी और आ पहुँचा या कोई क़ैदी छूट गया।।
—
या कहते थे कुछ कहते, जब उसने कहा– “कहिए”।
तो चुप हैं कि क्या कहिए, खुलती है ज़बाँ कोई?
उम्र तेरी ही ग़म में गुज़रेगी।।