गुलज़ार साब की ज़िंदगी में ही क्या, हम में से हर एक के जीवन में जाने कितने दिन बस एक दिन होने भर का अहसास करा के निकल जाते हैं, पर उन्हें किसी कबाड़ी की दुकान पर बिकने या रास्तों पर यूँ ही पैरों से ठुकराए जाने वाले खाली…बेकार डिब्बे से तुलना कर पाना सिर्फ गुलज़ार साब के ही वश की बात है…|
एक और दिन
खाली डिब्बा है फ़क़त, खोला हुआ चीरा हुआ
यूँ ही दीवारों से भिड़ता हुआ, टकराता हुआ
बेवजह सड़कों पे बिखरा हुआ, फैलाया हुआ
ठोकरें खाता हुआ खाली लुढ़कता डिब्बा
यूँ भी होता है कोई खाली-सा बेकार-सा दिन
ऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन
ऊपर से खुशनुमा नज़र आने वाले जाने कितने लोग अन्दर ही अन्दर अपने ग़मों की स्याह क़ब्रों में खामोश मौत मर जाते हैं और पता भी नहीं चलता…सिवाय गुलज़ार साहब की पारखी नज़रों के…|
कब्रें
कैसे चुपचाप ही मर जाते हैं कुछ लोग यहाँ
जिस्म की ठंडी सी
तारीक सियाह कब्र के अन्दर !
ना किसी साँस की आवाज़
ना सिसकी कोई
ना कोई आह, ना जुम्बिश
ना ही आहट कोई
ऐसे चुपचाप ही मर जाते हैं कुछ लोग यहाँ
उनको दफनाने की ज़हमत भी उठानी नहीं पड़ती !
उम्र के गुजरने के साथ उपजा अकेलापन और दर्द कितनी दयनीयता से अपने जज़्बात बांटने के लिए जवान कन्धों की तलाश करता है, इसे कितनी ख़ूबसूरती से इन पंक्तियों में उकेरा है…देखिए तो ज़रा…|
लैंडस्केप
दूर सुनसान-से साहिल के क़रीब
इक जवाँ पेड़ के पास
उम्र के दर्द लिए, वक्त का मटियाला दुशाला ओढ़े
बूढा-सा पाम का इक पेड़ खडा है कब से
सैकड़ों सालों की तन्हाई के बाद
झुक के कहता है जवाँ पेड़ से: `यार,
सर्द सन्नाटा है, तन्हाई है,
कुछ बात करो ‘
और देखिए तो…एक जाते साल को इस नज़र से क्या देखा है किसी और ने…?
आहिस्ता-आहिस्ता
आहिस्ता-आहिस्ता आख़िर पूरी बोतल ख़त्म हुई
घूँट-घूँट ये साल पीया है
तल्ख़ ज़्यादा, तेजाबी और आतिशीं कतरे
होंठ अभी तक जलते हैं !